श्रीमती जसवीर कौर आदि बनाम श्रीमती इसरार जहां, वाद संख्या :-REV/285/2016/ मुरादाबाद में माननीय राजस्व परिषद ,लखनऊ द्वारा उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की धारा 229 (b)संगत अधिनियम उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 की धारा 144 तथा उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम 1901 की धारा33/39 एवं संगत अधिनियम उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 की धारा 32 का तुलनात्मक विवेचना करते हुए निम्नलिखित विधि व्यवस्था दी गई है:
उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता 2006 की धारा 32 (2) के अंतर्गत सरसरी प्रक्रिया में मालिकाना हक/स्वत्व नहीं दी जा सकती
उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम 1901 की धारा 39(2) वर्तमान में लागू राजस्व संहिता 2006 की धारा 32(2) दोनों के ही अवलोकन से स्पष्ट है कि इन धाराओं के अंतर्गत मालिकाना हक/ स्वत्व निर्धारण के प्रश्न को अंतर्विष्ट करने वाले/ रखे जाने वाले वादों को निषेधित किया गया है व इन धाराओं के अंतर्गत इस प्रकार के विवादों को निर्णित करने की कार्यवाही नहीं की जा सकती. धारा33/39 के अंतर्गत अभिलेखों को शुद्धिकृत करने की कार्रवाई एक सरसरी प्रक्रिया (summary proceeding) है जिसके अंतर्गत मालिकाना हक /स्वत्व निर्धारण किया जाना अपेक्षित नहीं है.
पुराने बैनामा / अभिलेख के आधार पर खतौनी में नाम किस प्रकार दर्ज किया जा सकता है?
यदि कोई व्यक्ति किसी वर्षों पुरानी घटना अथवा पुराने बैनामे / अभिलेख आदि के आधार पर अपना नाम भूमिधर के रूप में दर्ज कराना चाहता है तो उसके लिए उत्तर प्रदेश जमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की धारा 229 (बी)के अंतर्गत नियमित वाद दायर किया जाना चाहिए.राजस्व संहिता 2006 की धारा 32(2 )के अवलोकन से भी यह स्पष्ट है कि ऐसे प्रकरण जहां हक् का जटिल प्रश्न अंतरग्रस्त हो ,को धारा 32(2) के अंतर्गत निर्णीत नहीं किया जा सकता है .
ऐसे प्रकरणों में राजस्व संहिता की धारा 144 के अंतर्गत नियमित घोषणात्मक वाद दायर किया जाना चाहिए तथा विधिवत वाद बिंदुओं का निर्धारण कर और संबंधित पक्षकारों को साक्ष्य प्रस्तुत करने व सुनवाई का पूर्ण अवसर देते हुए वाद का गुण दोष के आधार पर निस्तारण किया जाना चाहिए.
धारा 229( बी) बनाम धारा 33/ 39 अथवा धारा 144 बनाम धारा 32
राजस्व अधिनियमों में सुस्पष्ट प्रावधानों के बावजूद देखा जा रहा है कि अनेकों प्रकरणों में पक्षकारों द्वारा धारा 229 बी के अंतर्गत नियमित वाद दायर न करके धारा 33/ 39 के अंतर्गत वाद दायर किया जाता है व विवादित भूमि पर मालिकाना हक प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है. इस प्रथा/ प्रयास को किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराया जा सकता है. यह न केवल विधि विरुद्ध है अपितु न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग भी है जिसके कारण अभिलेख शुद्धीकरण हेतु की जाने वाली सरसरी कार्रवाई वर्षों और कई बार दशकों तक लंबित रह जाती है .
उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम की धारा 33 /39 व राजस्व संहिता 2006 की धारा 32 का दायरा अत्यंत सीमित है व इन धाराओं के अंतर्गत केवल सामान्य प्रकृति की ऐसी त्रुटियों का ही संशोधन किया जाना अभीष्ट होता है जो कि विगत खतौनी में मिलान करने पर अथवा बैनामा /वसीयत आदि अभिलेखों के अवलोकन से स्पष्ट दिखाई दे रही हो.
अभिलेखों को शुद्ध रखने के संबंध में राजस्व कर्मियों के दायित्व
राजस्व अधिनियमो में राजस्व अभिलेखों जैसे खतौनी, मानचित्र , खसरा आदि के रखरखाव एवं उन्हे अद्यतन रखने का उत्तरदायित्व संबंधित राजस्व अधिकारियों को दिया गया है. उनसे अपेक्षा की गई है कि उन्हें इन अभिलेखों में जाने अनजाने में आई सामान्य प्रकृति की त्रुटियों को सुसंगत धाराओं के अंतर्गत सरसरी कार्रवाई के माध्यम से ठीक करे ताकि संबंधित पक्षकारों/ ग्राम वासियों को त्वरित न्याय प्राप्त हो सके और राजस्व अभिलेख भी शुद्ध व अद्यतन रहे .
इसी उद्देश्य से शासन द्वारा प्रतिवर्ष राजस्व अधिकारियों को फील्ड अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए अपने शीत कालीन भ्रमण के दौरान ग्राम में ग्राम राजस्व समिति के सदस्यों व अन्य ग्राम वासियों के बीच खतौनी को सार्वजनिक रूप से पढ़े जाने के निर्देश दिए जाते हैं ताकि खतौनी में प्रकाश में आई सामान्य प्रकृति की त्रुटियों को स्थानीय जांच व ग्राम राजस्व समिति के सदस्यों और पक्षकारों से पूछताछ करके व् संबंधित राजस्व अधिकारियों की आख्या प्राप्त कर मौके पर ही दुरुस्त कर दिया जाए.
क्या सरसरी कार्रवाई को लंबे समय तक चलाया जा सकता है?
राजस्व वादों में रेवेन्यू कोर्ट मैनुअल के अनुसार कार्यवाही की जाती है तथा सरसरी कार्यवाही के प्रकरणों में सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के समस्त प्रावधान यथावत लागू नहीं होते बल्कि कुछ एक सुसंगत प्रावधान ही राजस्व न्यायालयों पर लागू होते हैं. अतः राजस्व न्यायालयों द्वारा सरसरी कार्रवाई को नियमित वादों की भांति चलाए जाना/ दीर्घ अवधि तक लंबित रखा जाना उचित नहीं है.
यदि धारा 229(बी) अथवा 144 के अंतर्गत वाद दर्ज ना कर 33/ 39 अथवा 32 के अंतर्गत वाद दर्ज किया गया है तो न्यायालय द्वारा क्या निर्णय लिया जाना चाहिए?
राजस्व न्यायालयों से अपेक्षित है कि इस प्रकार के प्रकरणों में उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम 1901की धारा 33/39 अथवा राजस्व संहिता 2006 की धारा 32 के अंतर्गत प्रचलित सरसरी कार्यवाही को संबंधित पक्षकार /आवेदक को इस परामर्श के साथ समाप्त कर दिया जाए कि वे अपना दावा नियमित घोषणात्मक वाद के रूप में यथास्थिति उत्तर प्रदेश जमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की धारा 229(b) अथवा राजस्व संहिता 2006 की धारा 144 के अंतर्गत प्रस्तुत करें .उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम 1901 की धारा 33/ 39 अथवा संहिता 2006 की धारा 32 के अंतर्गत प्रचलित सरसरी कार्यवाही को अनावश्यक वर्षों तक लंबित रखा जाना कदापि उचित नहीं है.